Saturday, August 7, 2010

लक्ष्यहीन

हरी चादर ओढ़े मैदान,
सफ़ेद ओदनी ओढ़े पर्वत महान,
जल से कल-कल करती नदियाँ,
कहीं गर्म पानी के सरोते,
कहीं रंग बिरंगी सुन्दर कलियाँ,
कलियों पर कोतुहल करते भंवर,
शांत रूप  गाय , उद्दंड वानर,
शक्ति रूप अश्व,कर्मशील गदर्भ,
असीमित सोन्दर्य से सजाया,
बयां ना हो सके ऐसा रूप,
लिखते लिखते लेखनी लड़खड़ाने लगे,
कर इतनी अद्वितीय रचना ,
हे रचनाकार तुम कहाँ खो गये,
हे संरक्षक कहाँ मदमस्त  तुम हो गए |
सन्देश कोई मेरा देदे तुम्हे,
देखो दुर्दशा अपनी रचना की,
हो गई बंझड़ सारी धरा,
हुआ ठूंठ पंछियों का आसरा,
 जीवंत वादियाँ वीरान हो गई,
मुस्कराती  कलियाँ खो गई,
कर काँटों का आलिंगन,
पर्वतराज आज नग्न है खड़ा,
नदियों में पानी लाल बह रहा ,
लाल सरहदों  दुनियां बँटी,
प्रेम का कोई चिन्ह नहीं ,
मानव दानव से भिन्न नहीं,
अब आओ मेरे पालनहार ,
यह दुनिया लक्ष्य हिन् हुए,
खुद ही खुद की दुश्मन हुई |